Skip to content

जम्मू-कश्मीर में चुनाव दर चुनाव कैसे कमजोर होती गई कांग्रेस, राहुल गांधी के सामने यूपी जैसी चुनौती?

जम्मू-कश्मीर में चुनाव दर चुनाव कैसे कमजोर होती गई कांग्रेस, राहुल गांधी के सामने यूपी जैसी चुनौती?

जम्मू-कश्मीर में चुनाव दर चुनाव कैसे कमजोर होती गई कांग्रेस, राहुल गांधी के सामने यूपी जैसी चुनौती?

जम्मू कश्मीर की विधानसभा में एक वक्त में कांग्रेस का जलवा हुआ करता था. उसका प्रभुत्व था. 1947 के बाद जम्मू कश्मीर में 19 सरकारें रहीं. इसमें से 11 सरकारों का हिस्सा कांग्रेस रही. लेकिन चुनाव दर चुनाव कांग्रेस यहां पर कमजोर होती गई. इसकी सबसे बड़ी वजह गुटबाजी रही. गुटबाजी की वजह से ही पीडीपी का जन्म हुआ. अलग-अलग दौर में यहां पर कांग्रेस में खेमेबाजी देखी गई.10 वर्ष बाद जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। तारीखें घोषित हो चुकी हैं। तीन चरणों में मतदान होगा। 4 अक्टूबर को नतीजे जारी किए जाएंगे।

ये चुनाव बीजेपी, कांग्रेस, पीडीपी और एनसी को फिर से सत्ता पर आने का मौका देते हैं। राहुल गांधी, एक कांग्रेस सांसद, इस अवसर को बर्बाद करना नहीं चाहते। चुनाव घोषणा के बाद वह एक्टिव मोड में आ गए। वह कश्मीर में लोगों के मनोभावों को जानने के लिए हैं। घाटी में कांग्रेस का पुनर्गठन करना राहुल का लक्ष्य है। 1980 से पहले की स्थिति में पार्टी को वापस लाना होगा। तब घाटी में कांग्रेस का एकछत्र राज था।

जम्मू कश्मीर में कांग्रेस की कमजोरी अपने ही नेता की वजह से हुई। पार्टी में बार-बार गुटबाजी हुई। एक खेमा दूसरे खेमा के प्रकाश से टकराता था। पार्टी टूट जाती और इसका प्रभाव विधानसभा चुनाव पर होता। 27 अक्टूबर, 1947 के बाद से जम्मू कश्मीर में 19 सरकारें काम कर चुकी हैं। कांग्रेस इनमें से ग्यारह सरकारों में शामिल रही। कांग्रेस का राज्य में हाल वैसा ही है जैसा उत्तर प्रदेश में हुआ है। जम्मू-कश्मीर में पीडीपी-एनसी के बढ़ते जनाधार की तरह, उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा के बढ़ते जनाधार से कांग्रेस का आधार कमजोर हो गया।

गुटबाजी ने कांग्रेस को कमजोर कर दिया

जम्मू कश्मीर में कांग्रेस की कमजोरी का मुख्य कारण गुटबाजी था। दशकों से अधिक समय तक, कांग्रेस का एक बड़ा नेता ने पार्टी से अलग होने का निर्णय लिया। जम्मू कश्मीर के पहले मुख्यमंत्री गुलाम मोहम्मद सादिक ने अपनी पार्टी के ही नेता सैयद मीर कासिम के साथ लगातार बहस की। 1960 के दशक में दोनों पक्षों के मतभेद ने पार्टी को दो भागों में बांट दिया। मोहम्मद सादिक के निधन तक यह विवाद जारी रहा। सादिक राज्य के पहले मुख्यमंत्री थे और कासिम पार्टी का अध्यक्ष था।

  • 1967 में, सादिक ने अपने पुराने साथी मुफ्ती मुहम्मद सईद को कृषि और सहकारी समितियों का उप मंत्री बनाया।
  • मुफ्ती सईद सादिक, हालांकि, सीएम पद से हटने से बच नहीं पाए। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी मीर लसजन ने एक इंटरव्यू में कहा कि योजना मुफ्ती सईद ने बनाई थी।
  • उन्होंने कहा कि सादिक के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने के लिए कासिम गुट के 32 विधायकों का एक समूह आलाकमान से मिलने गया था।
  • Lassan ने कहा कि वे पहले व्यक्ति थे जो मुफ्ती उप मंत्री पद से इस्तीफा देते थे। इंदिरा गांधी की योजना, हालांकि, असफल रही। एलसजन ने उन्हें समझौता करने और कासिम को सार्वजनिक कार्यों का मंत्री बनाकर खुश रहने को कहा।
  • सादिक के बाद जम्मू कश्मीर का मुख्यमंत्री बनने वाले कासिम ने कांग्रेस को विभाजित करने का कारण बताया।

अपने संस्मरण माई लाइफ, माई टाइम में, कासिम ने कहा कि मुझे और सादिक को कश्मीर की राजनीति में लौकिक जोनाथन और डेविड के रूप में जाना जाता था, लेकिन कांग्रेस ने अपनी पुरानी साजिशों का इस्तेमाल हमें राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी और दुश्मन बनाया। जम्मू-कश्मीर की राजनीति में कांग्रेस सब कुछ करने वाली संस्था बन गई।25 फरवरी, 1975 तक, कासिम जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे। इंदिरा-शेख समझौते के बाद शेख अब्दुल्ला जम्मू कश्मीर का अगला मुख्यमंत्री बन गया। इंदिरा गांधी ने मुफ्ती सईद को कासिम से दूर करने के लिए नियुक्त किया था। 1975 में सईद को पीसीसीआई का अध्यक्ष बनाया गया।

सईद सरकार के खिलाफ थे

इंदिरा-शेख समझौते के बाद शेख अब्दुल्ला कांग्रेस नीत सदन के अध्यक्ष बने। दिल्ली के निर्देश पर कुछ कांग्रेसियों ने शेख और उनके प्रतिद्वंद्वी के चुनाव लड़ने के लिए जगह बनाई। कांग्रेस इससे परेशान हो गई। कासिम चाहते थे कि दिल्ली के निर्देशों के अनुसार स्थिति चलती रहे। फिर भी मुफ्ती ने समर्थन वापस लिया। कासिम गुट शेख अब्दुल्ला के साथ था, लेकिन सईद गुट सरकार के खिलाफ था। 1977 के चुनाव में इस गुटबाजी से कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ा। उन्होंने विधानसभा की 76 सीटों में से 47 में जीत हासिल की। खुद मुफ्ती सईद ने अपने घर में चुनाव नहीं जीता।

शेख अब्दुल्ला की सरकार को शांतिपूर्ण ढंग से चलाने के लिए मुफ्ती सईद को दिल्ली भेजा गया। केंद्रीय सरकार में उन्हें मंत्री बनाया गया। 1980 के दशक तक, कश्मीर में कांग्रेस में तीन गुट बन गए। India Today ने बताया कि 15 दिसंबर 1982 को पीसीसी की बैठक में कश्मीर घाटी में कांग्रेस के अंदरूनी विवाद का अंत हुआ। सादिक, कासिम, मुफ्ती और गुलाम रसूल कर के गुटों की चर्चा मीटिंग में हुई।

       यह भी देखें:राज्यसभा चुनाव: 12 सीटों में से बीजेपी ने कहां-कहां उतारे उम्मीदवार, जीत-हार के क्या हैं समीकरण..जानें पूरा लेखा-जोखा

राजीव गांधी के दौर में सईद

इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी ने कांग्रेस की कमान संभाली। सईद को पार्टी में बाहर रखा गया। सईद के विरोध के बावजूद राजीव गांधी ने फारूक अब्दुल्ला की अगुवाई वाली नेशनल कॉन्फ्रेंस बनाई। राजीव गांधी ने सईद को कैबिनेट मंत्री बनाया। सईद राज्य से निकाले जाने से खुश नहीं थे और 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जन मोर्चा बनाया, तो उन्होंने पाला बदल लिया।

सईद के पार्टी से बाहर निकलने के बाद फारूक अब्दुल्ला की एनसी-कांग्रेस गठबंधन सरकार के दौरान कांग्रेस में अंदरूनी विवाद जारी रहा। तत्कालीन जम्मू-कश्मीर कांग्रेस अध्यक्ष मोहम्मद शफी कुरैशी और गुलाम रसूल कर के बीच काफी विवाद था। जैसा कि जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल जगमोहन मल्होत्रा ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, माई फ्रोजन टर्बुलेंसेस, कांग्रेस बहुत विभाजित थी। पीसीसी प्रमुख मोहम्मद शफी कुरैशी एक गुट का नेतृत्व करते थे, जबकि बिजली मंत्री गुलाम रसूल कर दूसरे गुट का नेतृत्व करते थे। दोनों का रिश्ता खराब हो गया।

1999 के बाद समस्या और गहरी हुई

1999 के बाद, कांग्रेस की स्थिति और खराब हो गई। 1996 में मुफ्ती सईद फिर से कांग्रेस में शामिल हुए। 1999 में वह पार्टी छोड़कर पीडीपी बनाया। पार्टी ने 2002 के विधानसभा चुनावों से पहले विश्वसनीय लेफ्टिनेंट गुलाम नबी आज़ाद को जम्मू-कश्मीर की कमान सौंप दी। केंद्रीय स्तर पर आजाद ने राज्य स्तर पर विवादों के बीच शांति से अपनी जगह बनाई थी। 2002 में कांग्रेस ने 87 में से 20 सीटें जीतीं। आजाद मुख्यमंत्री बनकर उभरे। लेकिन पीडीपी के मुफ्ती सईद ने कांग्रेस के साथ पुराने संबंधों की वजह से प्रधानमंत्री बन गए। कांग्रेस नेतृत्व ने गुलाम नबी आजाद को दिल्ली लाया। उनका पद महासचिव था। उनका पीसीसी अध्यक्ष पद गिर गया। उनकी जगह उनके करीबी पीरज़ादा मोहम्मद सईद ने ली। 2005 में, गुलाम नबी आजाद को राज्य का मुख्यमंत्री बनाया गया।

गुटबाजी नहीं खत्म हुई

नेता आए और गए, लेकिन कांग्रेस में मतभेद नहीं खत्म हुए। अब सैफुद्दीन सोज और गुलाम नबी आजाद के बीच बहस शुरू हुई। सोज पार्टी ने पुरस्कार देकर इसकी शुरुआत की। दरअसल, 2000 में प्रोफेसर सैफुद्दीन सोज कांग्रेस में शामिल हुए। उससे पहले, वे नेशनल कॉन्फ्रेंस के सांसद थे और पार्टी व्हिप के खिलाफ मतदान करके अटल बिहारी वाजपेयी सरकार गिरा दी थी। 2005 में कांग्रेस ने उन्हें केंद्रीय कैबिनेट में नियुक्त किया, फिर फरवरी 2008 में पार्टी की राज्य इकाई का अध्यक्ष बनाया।

अध्यक्ष सोनिया गांधी ने गुलाम नबी आजाद की सलाह से सोज बनाया। तब वे आजाद राज्य के प्रधानमंत्री थे। आजाद ने सोज को कम आंकना महंगा पड़ गया था। पार्टी को सार्वजनिक रूप से शर्मिंदगी हुई, क्योंकि सोज और आजाद सभाएं पार्टी में हुईं। दोनों पक्षों ने एक दूसरे पर आक्रमण करना शुरू किया। पार्टी निष्क्रिय हो गई। चुनाव पर इसका प्रभाव पड़ा। 1996 के बाद 2014 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को सबसे कम सीटें मिलीं।

यूपी की तरह राहुल का सामना

कश्मीर में राहुल गांधी की चुनौती यूपी की तरह है। कांग्रेस भी यूपी में सबसे बड़ी पार्टी थी। सूबे में कांग्रेस के एक से अधिक नेता थे। गोविंद वल्लभ पंत से सुचेता कृपलानी तक ने वहां शासन किया। 1950 से 1967 तक कांग्रेस ने यूपी की सरकार चलाई। इसके बाद वह 1969 से 1970 और 1970 से 1973 तक मुख्यमंत्री रहा।इसके बाद कुछ महीने तक राष्ट्रपति रहा। 1989 तक कांग्रेस की सरकार यहां थी। हां, जनता पार्टी और भारतीय क्रांति दल की सरकारें भी बीच में आईं। लेकिन 1989 के बाद कांग्रेस यहां से धीरे-धीरे निकल गई। वह ३५ वर्षों से इस राज्य की सत्ता पर काबिज होने की आशा में बैठी है।

कश्मीर में कांग्रेस एनसी और पीडीपी के सहारे फिर से खड़ा होने की कोशिश कर रही है, वहीं उत्तर प्रदेश में वह सपा के सहारे अपना आधार बनाने में लगी है। कांग्रेस को इन दोनों राज्यों में अकेले खड़े होना बहुत मुश्किल लग रहा है क्योंकि उनमें अब राज्य स्तर पर कोई बड़ा नेता या कार्यकर्ता नहीं है। कांग्रेस को कश्मीर में पुनर्गठन करने के लिए पीडीपी और एनसी का सहारा लेना होगा। केंद्र शासित इस राज्य में कांग्रेस का सबसे प्रभावशाली नेता गुलाम नबी आजाद भी उससे अलग हो गया है। यानी यूपी की तरह यहां भी उसके पास कोई प्रमुख व्यक्तित्व नहीं है। यहाँ पार्टी भी मजबूत नहीं है।

 

 

 

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *